मूल अधिकार VS संवैधानिक संशोधन [ Fundamental Rights VS Constitutional Amendments )

0

मौलिक अधिकार( Fundamental Rights)  वे अधिकार है जो व्यक्ति के जीवन के विकास के लिए मौलिक तथा आवश्यक होने के साथ ही यह  संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदान किए जाते हैं और इन अधिकारों के प्रयोग में राज्य द्वारा कोई  हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता।भारतीय नागरिकों को छ्ह मौलिक अधिकार प्राप्त है :-

  1. समानता का अधिकार : अनुच्छेद 14 से 18 तक।
  2. स्वतंत्रता का अधिकार : अनुच्छेद 19 से 22 तक।
  3. शोषण के विरुध अधिकार : अनुच्छेद 23 से 24 तक।
  4. धार्मिक स्वतंत्रता क अधिकार : अनुच्छेद 25 से 28 तक।
  5. सांस्कृतिक तथा शिक्षा सम्बंधित अधिकार : अनुच्छेद 29 से 30 तक।
  6. संवैधानिक उपचारों का अधिकार : अनुच्छेद 32

भारतीय संविधान के निर्माता यह चाहते थे कि सविधान इतना कठोर ना बन जाए कि उसमें बदलती हुई परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन न किया जा सके और ना ही इतना लचीला बन जाए कि सत्तारूढ़ दल के हाथों की कठपुतली बन जाए तो उन्हें बीच का मार्ग अपनाया।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 368 (Constitutional Amendments) में संशोधन की प्रक्रिया का वर्णन किया गया है।
लेकिन मौलिक अधिकार में संवैधानिक संशोधन किया जा सकता है या नहीं यह हमेशा विवाद का विषय रहा है इसमें सुप्रीम कोर्ट ने अपने अलग-अलग फैसलों में अलग-अलग निर्णय की व्याख्या की है इस लेख में हम सुप्रीम कोर्ट के द्वारा दिए गए अलग-अलग फैसला का विस्तार से अध्ययन करेंगे।

मूल अधिकार एवं संवैधानिक संशोधन [ Fundamental Rights and Constitutional Amendments )

मूल अधिकारों के सम्बन्ध में  संसद तथा सर्वोच्च न्यायालय के मध्य विवाद होता रहा है मूल अधिकारों के प्रश्न यह है कि संसद को मौलिक अधिकारों में संशोधन करने का अधिकार है या नहीं , यदि अधिकार है , तो उसकी क्या सीमाएँ हैं ? अनुच्छेद 13 ( 2 ) ( Article 13 [ 2 ] )  में कहा गया है ,  राज्य कोई ऐसा कानून नहीं बनाएगा , जो भाग तीन में दिए गए अधिकारों को समाप्त करता हो या उन्हें कम करता हो । इस धारा के विरोध में बनाया गया कानून विरोध की सीमा तक अवैध होगा ।
इस विषय पर महत्त्व इस कारण से बढ़ जाता है कि सन् 1951 से लेकर सन् 1972 तक के वर्षों में उच्चतम न्यायालय ने इस विषय पर अलग – अलग निर्णय दिए हैं ।
1.  शंकरी प्रसाद बनाम बिहार राज्य ‘ विवाद में सन् 1952 में उच्चतम न्यायालय ने अपने सर्वप्रथम निर्णय में यह स्वीकार किया कि संसद मूल अधिकारों में संशोधन कर सकती है , यदि इस सम्बन्ध में संविधान द्वारा निर्धारित प्रक्रिया का पालन किया जाए ।

2. ‘ सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य ‘ विवाद ( सन् 1965 ) में उच्चतम न्यायालय ने अपने बहुमत निर्णय ( 3-2 के बहुमत ) में पुन : पहले निर्णय का समर्थन किया

3.  ‘ गोलकनाथ विवाद ‘ ( सन् 1967 ) में उच्चतम न्यायालय ने अपने बहुमत ( 6-5 के मत से ) निर्णय देते हुए अपने पूर्व निर्णयों को अस्वीकार करते हुए यह घोषित किया , “ संसद को संविधान के भाग 3 के किसी उपबन्ध को इस तरह से संशोधन करने का अधिकार प्राप्त नहीं होगा , जिससे कि मूल अधिकार छिन जाएँ या सीमित हो जाएँ । ”

मुख्य न्यायमूर्ति श्री सुब्बाराव ने इस बात पर जोर दिया कि भारत में संविधान सर्वोच्च है और संविधान द्वारा निर्मित इस मौलिक कानून के उपबन्धों के अनुसार पदाधिकारियों को चलना होगा । बहुमत न्यायाधीशों द्वारा की गई संविधान की व्याख्या ने मूल अधिकारों को संसद की पहुँच से बाहर रखा

न्यायाधीशों ने अपने निर्णय में कहा है , “ मूल स्वतन्त्रताओं की महत्ता इतनी अनुभवातीत ( Transcendental ) है कि दोनों सदनों के समस्त सदस्यों द्वारा सर्वसम्मत से पारित विधेयक भी उनके प्रयोग को निष्प्रभावी नहीं बना सकता है । ” उन्होंने आगे कहा है “ स्वतन्त्रता का दायरा मूल अधिकार अध्याय द्वारा पोषित संरक्षण पर निर्भर करता है न कि संसद द्वारा इस बात के निर्धारण पर कि सार्वजनिक हित के लिए क्या हितकारी है । ” अतः न्यायाधीशों की धारणा यह थी कि इस कारण मूल अधिकार असंशोधनीय एवं सर्वोच्च ( Basic , Fundamental and Sacrosanct ) हैं ।

उच्चतम न्यायालय के इस निर्णय ने संसद की सर्वोपरि स्थिति को गहरा धक्का पहुँचाया । इसका अधिकार क्षेत्र तथा सार्वभौमिकता सीमित हो गई । इसके अतिरिक्त इस निर्णय से संसद को आर्थिक या सामाजिक प्रगति की दिशा में आगे बढ़ने में कठिनाई हो गई । अतः संविधान में ऐसा संशोधन किए जाने के प्रस्ताव पर विचार किया जाने लगा , जिससे ‘ गोलकनाथ विवाद ‘ में दिए गए निर्णय पर पुनर्विचार हो सके । अतः सन् 1971 में 24 वाँ संविधान संशोधन पारित किया गया , जिसके द्वारा संसद को यह अधिकार पुनः मिल गया कि वह मूल अधिकारों सहित संविधान के किसी भी अनुच्छेद में संशोधन कर सकती है ।

4.  ‘ केशवानन्द भारती बनाम केरल सरकार विवाद ( सन् 1973 ) ‘ में संविधान के 24 वें संशोधन को चुनौती दी गई । 13 न्यायाधीशों की खण्ड पीठ ने इस विवाद की सुनवाई की और 24 अप्रैल , 1973 को उच्चतम न्यायालय ने अपने बहुमत ( 18 न्यायाधीशों की संविधान पीठ में 7 निर्णय के पक्ष में और 6 विरोध में थे ) यह निर्णय दिया गया कि
( 1 ) गोलकनाथ बाद गलत ढंग से निर्णित हुआ था , अतः इस विवाद में दिए गए निर्णय को निरस्त या रद्द किया जाता है ,
( ii ) संविधान संशोधन करने की संसद की शक्ति पर कोई सीमाएँ नहीं हैं , अतः 24 वें और 25 वें संविधान संशोधन पूर्णतः वैध हैं , क्योंकि अनुच्छेद 368 के अन्तर्गत निर्धारित प्रक्रिया का कठोरतापूर्वक पालन किया गया है ।
बहुमत से निर्णय देने वाले न्यायाधीश इस बात पर भी सहमत थे कि संविधान के अनुच्छेद 368 के अन्तर्गत संशोधन शक्ति इतनी विस्तृत नहीं है , जिससे कि संविधान के ‘ मूल ढाँचे तथा आधार ‘ ( Basic Structure and Frame Work ) को ही नष्ट कर दिय जाए । दूसरे शब्दों में , संविधान का अनुच्छेद 368 संसद को संविधान के बुनियादी ढाँचे या संरचना को बदलने के लिए सक्षम नही बनाता ।

5  ‘ मिनर्वा मिल्स विवाद ‘ ( सन् 1980 ) में उच्चतम न्यायालय ने सन् 1973 में दिए गए अपने निर्णय को ही दोहराया है अतः मूल अधिकारों में संशोधन करने की दृष्टि से सन् 1973 का निर्णय आज भी वैध एवं मान्य है ।

fundamental rights – मौलिक अधिकारो को सविधान द्वारा संरक्षण प्राप्त होता है और इनके सम्बंध में सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट रीट जारी कर सकते है, परंतु क़ानूनी अधिकारो के सम्बंध में रीट जारी नहीं होते हैं।

  1. समानता का अधिकार : अनुच्छेद 14 से 18 तक।
  2. स्वतंत्रता का अधिकार : अनुच्छेद 19 से 22 तक।
  3. शोषण के विरुध अधिकार : अनुच्छेद 23 से 24 तक।
  4. धार्मिक स्वतंत्रता क अधिकार : अनुच्छेद 25 से 28 तक।
  5. सांस्कृतिक तथा शिक्षा सम्बंधित अधिकार : अनुच्छेद 29 से 30 तक।
  6. संवैधानिक उपचारों का अधिकार : अनुच्छेद 32

बार बार पूछे जाने वाले प्रश्न

Leave A Reply

Your email address will not be published.