Article 20 (अपराध की दोष सिद्धि के विषय में संरक्षण)and Article 21 (Right to Protection of Life and Personal Liberty)
हमने पिछले कुछ लेखो में भारतीय सविधान के समता के अधिकार व स्वतन्त्रता के अधिकार के बारे में पुरे विस्तार से अध्ययन कर चुके आज हम इस लेख (Article 20) व आर्टिकल 21(article 21) का बारे में जानेगे।
अपराध की दोष सिद्धि के विषय में संरक्षण (Article 20)
Article 20(1) (Ex Post Facto Law)
में कहा गया है कि किसी व्यक्ति को उस समय तक अपराधी नहीं ठहराया जा सकता जब तक उसने अपराध के समय में लागू किसी कानून का उल्लंघन न किया।
मान लीजिए कि किसी आपके द्वारा आज किसी की हत्या(एलियन) या चोरी ऐसा कुछ भी किया जाता है जो कि कानूनों की नजरों में एक अपराध है। लेकिन उस अपराध के लिए अभी तक कोई कानून नहीं बनाए गया है लेकिन संसद व राज्य विधान मंडल आपके अपराध के लिए अगर को कानून बनाती है तो वह कानून लागू नहीं होगा क्योंकि आर्टिकल 20(1) में कहां गया है कि जिस समय में कोई अपराध किया जाता है उस समय जो कानून है।उसी के अनुसार ही सजा दी जाएगी न कि बाद में कोई कानून बना कर सजा दी जाने का कोई प्रवधान है।
Article 20(2) Double Jeopardy
दोहरा जोखिम किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए एक से अधिक दण्ड नहीं दिया जा सकता
अनुछेद 20 21 ऐसा मूल अधिकार है जिसमें आपको यह प्रधान करता है कि आपको किसी एक अपराध के लिए दो बार सजा न मिले जैसे आज किसी ने कोई अपराध किया होगा तो इस अपराध के लिए जो अभी कानून है, के द्वारा उसे सजा मिलेगी लेकिन यह इस अपराध के लिए अगर संसद के द्वारा कुछ सालों के बाद कोई और कानून लाया जाता है तो उस इस कानून के द्वारा उसे कोई सजा नहीं दी जाएगी अर्थात की एक अपराध के लिए केवल एक बार ही सजा दी जा सकती है।
Article 20(3) Self Incrimination (आत्म अभिसासन)
किसी दोषी/आरोपी व्यक्ति को अपने ही विरूद्ध गवाह बनने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता.
सेल्वी बनाम कर्नाटक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि जांच अधिकारी किसी मामले में आरोपी को नार्को या लाई डिटेक्टर टेस्ट किए जाने के लिए मजबूर नहीं कर सकता क्योंकि इन टेस्टों में आरोपी अपने ही खिलाफ बयान दे सकता है जो संविधान के अनुच्छेद 20 (3) का हनन है। संवैधानिक प्रावधानों और सुप्रीम कोर्ट के अन्य फैसलों पर विचार करते हुए बेंच ने कहा, ‘सबूतों की पुष्टि के लिए किसी भी व्यक्ति के फिंगर और फुट प्रिंट लिए जा सकते हैं और इसे अनुच्छेद 20 (3) के अंतर्गत मिले नागरिक अधिकारों का हनन नहीं माना जा सकता।’ बेंच ने हाई कोर्ट के उस फैसले को भी पलट दिया जिसमें उसने सबूतों के अभाव में आरोपी को बरी कर दिया था।
अपवाद
Article 20(1) का अपवाद कर संबधी कानूनों में अर्थदड लगाया जाता है।
Article 20(2) का अपवाद इसके अंतर्गत केवल न्यायालय द्वारा दंड दिए जाने या किसी दोषी को बरी किए जाने जैसे किसी मामले को ही शामिल किया जाता है इसमें विभागीय कार्य को शामिल नहीं किया जाता है। उदाहरण के लिए अगर एक सिविल सेवक है और उनको किसी अपराध में सजा दी जाती है जिसमे उसे उसके विभागीय कार्यो से उसे बर्खास्त का दिया है तो उसे दोहरे जोखिम में शामिल नहीं किया जाएगा (वेंकटरमन बनाम भारत संघ 1994 के फैसले में यह बात कही गए है )
यदि प्ली बारगेनिंग के अंतर्गत कोई भी दोषी व्यक्ति अपना अपराध स्वीकार कर लेता है और न्यायालय के बाहर विरोधी पक्षकार से समझौता कर लेता है तदनुसार न्यायालय उसे कम सजा देता है तो उसे 20(3)की परिधि से बाहर रखा जाएगा।( प्ली बारगेनिंग की शुरुआत आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम 2005 से किया गया था इसके अनुसार यदि आरोप लगाने वाला व्यक्ति आरोपी व्यक्ति के कुछ बातों से सहमत होकर उसे कम दंड दिलाने के लिए राजी हो जाता है तो न्यायालय को इसमें आपति नहीं होनी चाहिए अतः यह दलील सौदा या प्ली बारगेनिंग कानूनी रूप ले चुका है।
Article 20(3) तभी उपलब्ध होता है जब वास्तव में किसी व्यक्ति पर किसी अपराध के लिए दोषरोपण कर दिया जाता है।
203 के अंतर्गत उपलब्ध राहत,केवल अपराधिक मामलों में उपलब्ध होती है दीवानी मामलों में नहीं अर्थात किसी व्यक्ति को अपराधिक मामलों में अपने विरुद्ध गवाह बनने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता किंतु दीवानी मामलों में यह संभव है।(राजस्थान राज्य बनाम हार सिंह 2003 के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला दिया था)
व्यक्तिगत स्वतन्त्रता तथा जीवन की सुरक्षा का अधिकार ( अनुच्छेद 21 ) ( Right to Protection of Life and Personal Liberty ( Article 21 ) ] –
अनुच्छेद 21 (Article 21) में ‘नागरिक’ शब्द का प्रयोग न करके ‘व्यक्ति’ शब्द का प्रयोग किया गया है। इसका तात्पर्य यह है कि अनुच्छेद 21 का संरक्षण नागरिक एवं विदेशी सभी प्रकार के व्यक्तियों को प्राप्त है।
यह विदित है कि कोई भी अधिकार आत्यन्तिक (absolute) नहीं है। वस्तुत: व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का अस्तित्व एक सुव्यवस्थित समाज में ही सम्भव है। इसके लिए व्यक्ति के अधिकारों पर निर्बन्धन लगाना अति आवश्यक है, जिससे दूसरों के अधिकारों का हनन न हो।
प्रत्येक प्रजातान्त्रिक संवैधानिक व्यवस्था में व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का होना अनिवार्य है । ब्रिटेन में व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का आधार कानून का शासन ( Rule of Law ) है । भारत में व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की व्यवस्था अनुच्छेद 21 में स्पष्ट की गई है ।
संविधान के अनुच्छेद 21 में व्यक्ति के जीवन के अधिकार को मान्यता प्रदान की गई है । इसमें कहा गया है , “ किसी व्यक्ति को उसके जीवन तथा दैहिक स्वाधीनता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया को छोड़कर अन्य किसी प्रकार से वंचित नहीं किया जा सकता । ” सर्वोच्च न्यायालय ने 1997 में अपने एक महत्त्वपूर्ण फैसले में कहा है कि ‘ जीवन के अधिकार ‘ में आवास का अधिकार सम्मिलित है । 44 वें संवैधानिक संशोधन के द्वारा जीवन और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के अधिकार को एक पवित्र अधिकार का रूप दे दिया गया । अब संकटकाल में भी जीवन और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के अधिकार को समाप्त या सीमित नहीं किया जा सकता । इस संशोधन अधिनियम का उद्देश्य 1975 जैसी आपातकालीन घटनाओं की पुनरावृत्ति को रोकना है ।
अतः स्पष्ट है कि अनुच्छेद 21 के अनुसार किसी भी व्यक्ति के जीवन अथवा व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का उल्लंघन केवल कानून द्वारा निर्धारित ढंग ( Procedure Established by Law ) के अनुसार ही किया जा सकता है । कानून द्वारा निर्धारित ढंग से तात्पर्य है कि संसद तथा राज्यों के विधानमण्डलों को व्यक्तिगत स्वतन्त्रता सम्बन्धी ऐसे कानून बनाने का पूरा अधिकार है , जो संविधान के अनुच्छेद 20 तथा 22 के विरुद्ध न हों ।
यहाँ पर इस क्षेत्र में भारतीय तथा अमेरिकन प्रणाली में भेद करना आवश्यक है । अमेरिका में कानून की उचित प्रक्रिया ( Due Process of Law ) का उल्लेख है । इसके अनुसार अमेरिका में न्यायपालिका जहाँ किसी कानून के बारे में यह निर्णय लेती है कि वह संविधान के अनुकूल है अथवा नहीं , वहाँ उसे यह भी देखने का अधिकार है कि यह प्राकृतिक न्याय ( Natural Justice ) के अनुकूल है अथवा नहीं । यदि कोई कानून या कार्यपालिका की आज्ञा संविधान के अनुसार तो है , परंतु प्राकृतिक न्याय के अनुसार नहीं है , तो न्यायालय उसे अवैध घोषित कर देता है । इस प्रकार वहाँ न्यायपालिका विधानपालिका तथा कार्यपालिका दोनों पर अंकुश का कार्य करती है । भारतीय संविधान में ‘ कानून द्वारा निर्धारित प्रक्रिया ” ( Procedure Established by Law ) की व्यवस्था अमेरिका से भिन्न है । भारत में कोई भी कानून जो संविधान के अनुकूल है भले ही वह प्राकृतिक न्याय के विरुद्ध हो , मान्य होगा ।
भारत में संविधान के अनुच्छेद 21 विधानपालिका पर अंकुश नहीं , भले ही वह कार्यपालिका के ऊपर अंकुश हो । भारत में जान – बूझकर ‘ कानून द्वारा निर्धारित प्रक्रिया को अपनाया गया है , क्योंकि ऐस व्यवस्था से अमेरिका में जहाँ मुकद्दमेबाजी बढ़ी , वहाँ सामाजिक व आर्थिक परिवर्तनों में भी कठिनाइयाँ पैदा हुई हैं । इन्हीं कारण से भारतीय संविधान निर्माताओं ने भारत में ‘ कानून द्वारा निर्धारित प्रक्रिया ‘ को अपनाकर विधानपालिका को सर्वोच्च रखा गया
शिक्षा का अधिकार ( Right to Education ) 86 वें संविधान संशोधन अधिनियम , 2002 द्वारा संविधान के अनुच्छेद 2 के तुरन्त पश्चात् खण्ड 21 क जोड़कर शिक्षा को मौलिक अधिकार घोषित कर दिया गया है । इस व्यवस्था के उपरान्त यह व्यवस्था की गई कि राज्य छः से चौदह वर्ष की आयु के सभी बालकों को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करेगा । इसके साथ ही यह व्यवस्था भी की गई है कि बच्चों के माता – पिता और उनके अभिभावकों का यह कर्त्तव् होगा कि वह अपने बच्चों के लिए ऐसी उचित सुविधाओं के अवसर उपलब्ध करवाएँ जिनके फलस्वरूप बच्चे शिक्षा प्राप्त कर सके यदि किसी बच्चे के इस अधिकार का उल्लंघन किया जाता है तो वह उसके लागू करवाने के लिए याचिका दायर कर सकेंगे ।